abhivainjana


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Tuesday 18 December 2012

मेरा शहर देहरादून

मेरा शहर देहरादून 


विकास के नाम पर ये क्या होगया है
देखो ! मेरा शहर कही खो गया है
हरी भरी वादियों में खिलता था दून कभी
आज हवा ने भी रुख बदल लिया है
कभी सड़कों के दोनों किना्रो पर
सजा करती थी पेड़ो की सघन कतारें
आज उदास पड़ी हैं सड़के,
अपनी सूनी बांह पसारे
अब न बाग बचे न  बगीचे
बस कुछ पेड़ सहमे से खड़े हुए है
कब आजाए उनकी भी बारी
अब तो यहाँ मौसम भी बदल गया है
कभी चिड़ियों के कलरव से, दून जगा करता था
आज मोटरों के शोर ने नींद ही उड़ा दी है    
कभी पैदल चल कर ही हाट-बजार किया करते थे
आज दो कदम भी चलना दुश्वार होगया है
महा नगरों की कुरीतियो और शहरीकरण की इस
अंधी दौड़ ने मेरे दून की आत्मा को ही कुचल डाला है
हर तरफ शोर और अजनवी चेहरो की भीड़
इंसानों का नही, मुखौटो का शहर बन गया है
बासमती और लीची शान हुआ करती थी दून की कभी
आज मौसम की तरह ये भी कही खो गये हैं
बस बची है तो कुछ यादें और एक घण्टा घर
जिसने दून को आज भी जीवित रखा हुआ है…
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महेश्वरी कनेरी