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Friday 27 December 2013

रिश्तों की ताप


                रिश्तों की ताप

बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए

फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए


बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए

मर कर भी मिट सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।


पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए

चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए


मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए

शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए


चीर कर छाती चट्टानों की,नदी की सी प्रवाह चाहिए

अंजाम जो भी हो बस, बढ़ते रहने की चाह चाहिए


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       महेश्वरी कनेरी

Monday 9 December 2013

संस्मरण ....आमा ….


 बचपन में मैंने अपने दादा दादी और नाना नानी को तो नहीं देखा था ,पर हमारे पड़ोस में एक बुजुर्ग महिला जो अपने परिवार के साथ रहा करती थी उनका अकसर हमारे घर आना जाना हुआ करता था ।हम उन्हें आमा (नानी)कहा करते थे
   वे जब भी हमारे घर आती थी,माँ उन्हें बड़े प्यार से बिठा कर चाय नाश्ता दिया करती थी वे चाय नाश्ते के चुस्कियो के साथ-साथ अपनी हर छोटी-छोटी बातें ,हर दर्द हर दुख सुख माँ के साथ बाँटा करती थी। माँ भी उनकी हर बात बहुत ध्यान से सुनती और साथ ही उन्हें हिम्मत और तसल्ली भी देती रहती ।धीरे धीरे उनका हमारे घर पर आना जाना और अधिक होने लगा जिस दिन वो नहीं आती माँ को चिन्ता सी होजाती कहीं वे बीमार तो नहीं पड़ गई ? माँ की उनके लिए इतनी अधिक चिन्ता हम भाई बहनों को अच्छी नहीं लगती थी। हम सोचा करते थे उनका अपना भरा पूरा परिवार तो है बेटे बहू नाती पोते ,फिर माँ उनकी इतनी फिक्र क्यों किया करती है?
     समय बीतता रहा.उनका आना जाना उनकी गप शप और चाय नाश्ता यूँ ही चलता रहा ।जाड़ो के दिन शुरू होगए थे इधर कुछ दिनों से आमा भी हमारे घर नहीं पाई थी एक दिन माँ अचानक परेशान होकर कहने लगी तुम्हें पता है आमा बहुत बीमार है ..मैं उनसे मिलकर आरही हूँ कुछ दिनो से उन्होने कुछ भी नही खाया है ।मुझे देख कर कहने लगी मुझे तेरे हाथों की चाय पीनी है , चलो हटो-हटो मुझे उनके लिए चाय बनानी है माँ ने उनके लिए अदरक वाली चाय बनाई और सूजी का हल्वा जो उन्हें बहुत पसंद था  बड़े प्यार से सब पैक कर वहाँ लेगई और हम देखते ही रहे दूसरे दिन की सुबह उनके यहाँ कुछ शोर सा सुनाई दिया,माँ और मैं दौड़ कर वहाँ पहुँचे ,देखा आमा बेहोशी की हालत में पड़ी थी ,और घर वाले इर्द गिर्द हाथ बाँधे खड़े थे माँ ने उनके ठंड़े सूखे हुए हाथ को छूआ  माँ का स्पर्श पा कर मानो उनमें नई चेतना सी जाग गई हो उन्होंने अपनी पथराई हुई आँखे धीरे से खोली मानो कुछ कहना चाहती हो..मगर कह पाई बस आँखो से दो बूँद आँसू छलक पड़े और शायद ये आँसू बहुत कुछ कह भी गए  बस फिर हमेशा के लिए उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली और शान्त हो गई हमेशा के लिए न कोई गिला न कोई शिकायत ..हमेशा के लिए ये सारे दुख दर्द यही छोड़कर कहीं दूर चली गई..
    उस वक्त हम उनकी बातें समझ नहीं पाते थे पर आज लगता है वो अपने भरे पूरे परिवार के बीच होते हुए भी खुद को कितनी अकेली महसूस करती होगी चाय नाश्ता तो सिर्फ एक बहाना था, वो तो प्यार  और अपने पन की भूखी थी शायद इसी लिए वो हमारे घर आया करती थी
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महेश्वरी कनेरी