abhivainjana


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Friday 25 April 2014

चुनाव

चुनाव

भरे नहीं थे पिछले घाव
लो फिर आगया चुनाव
मुद्दों की मलहम लेकर
घर-घर बाँट रहे हैं
फिर नए साजिश की
क्या ये सोच रहे हैं ?
धर्म मज़हब की लेकर आड़
करते नित नए खिलवाड़
फिर शह-मात की बारी है
सियासी जंग की तैयारी है
आरोप प्रत्यारोप का
भयंकर गोला बारी है
विकास की उम्मीद लिए
परिवर्तन पर परिवर्तन
लेकिन थमता नहीं यहाँ
कुशासन का ये नर्तन
कहीं मुँह बड़ा हुआ यहाँ
कहीं हो रही रोटी छोटी
ऐसे राजा का क्या  ?
जो कर दे देश की
किस्मत खोटी
*******
महेश्वरी कनेरी

Sunday 20 April 2014

कह मुकरियाँ

                 कह- मुकरीएक बहुत ही पुरातन और लुप्तप्रायकाव्य विधा हैहज़रत अमीर खुसरो द्वारा   विकसित इस विधा पर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्तरीय काव्य-सृजन किया है.. "कह-मुकरीअर्थात ’कह कर मुकर जाना’ ! ये अत्यंत लालित्यपूर्ण और चुलबुली सी लोकविधा है
 वास्तव में इस विधा में दो सखियों के बीच का संवाद निहित होता हैजहाँ एक सखी अपने प्रियतम को याद करते हुए कुछ कहती हैजिसपर दूसरी सखी बूझती हुई पूछती है कि क्या   वह अपने साजन की बात कर रही है तो पहली सखी बड़ी चालाकी से इनकार कर (अपने इशारों से मुकर कर किसी अन्य सामान्य सी चीज़ की तरफ इशारा कर देती है. 
 मैं भी इस विधा को सीखने और जानने का प्रयास कर रही हूँ  मेरा यह पहला प्रयास है

कह मुकरियाँ

(१)

प्रेम बूँद वो भर कर लाते

तपित मन की प्यास बुझाते

मन मयूर है उस पर पागल

क्या सखि साजन्, ना सखि बादल

(२)

दूर खड़ा वो मुझको ताके

कभी कभी खिड़की से झाँके

प्यारा सा वो निर्लज बंदा

क्या सखि साजन,ना सखि चंदा

(३)

आशा की नव किरण जगाता

स्फूर्ति नई भर कर लाता

देख उसे शुरु हो दिन मेरा

क्या सखि साजन्, ना सखि सवेरा

(४)


काँटो के संग मिल मुस्काता


खुशबू से वो जग भर जाता


रंग रंग उसका लाजवाब

क्या सखि साजन्, ना सखि गुलाब

(५)


नैनों में वो बसता मेरे

उस बिन सब श्रृंगार अधूरे

शीतल जैसे गंगा का जल

का सखि साजन ? ना सखि काजल

(६)

संग संग चलते वो मेरे

झूम झूम कदमों को घेरे

दीवाना मुझ पर है कायल

का सखि साजन ? ना सखि पायल

(७)


मंद मंद चलता मुस्काता

सुरभित वो सब जग कर जाता

आने से खिल जाता है मन

का सखि साजन ? ना सखि पवन

(८)


अमूल्य पर, अजब है नाता

यही धरा का जीवन दाता

इसकी महिमा गाते ज्ञानी

का सखि साजन ? ना सखि पानी

(९)

तपित हिये जब मेरा तरसे

नेह बूँद बन झर झर बरसे

देख चातक सा मन है हर्षा

का सखि साजन ? ना सखि वर्षा

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महेश्वरी कनेरी

Friday 11 April 2014

कुछ अनोखे पल

     
 झुक कर आसमां जब

  धरती के कंधे पर सर रख देता है
  हौले से तब धरती थपथपा कर
  उसे थाम लेती है
अनोखा मिलन




 पहाड़ों की गोद से निकल
 चट्टानों को चीर,बेसुध  सी नदी
 दौड़ती हुई सागर की बांहो में
 सिमट जाती है
 अनोखा प्रेम…….




भोर की किरणों के आते ही
कलियाँ खिल उठतीं हैं
फूल मुस्काने लगते हैं
पेडों पर नई
कोंपलें फूटने लगतीं हैं
अनोखा लगाव……




माँ की छाती से चिपक
तृप्त हो मुस्का के
जब वो पहली बार
माँ कहता है..तब माँ
धन्य होजाती है
अनोखा अहसास….

  महेश्वरी कनेरी