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Saturday 28 March 2015

यादों के कुछ अनमोल सफर ( संस्मरण )


                      यादों के कुछ अनमोल सफर

      सफेद धोती ,कुर्ता सिर पर गाधी टोपी, गले में मफलर, गेहुँआ रंग,चमकती आँखें, चेहरे में निश्छल सी हँसी,चाल में गजब की फुर्ती और बातों में अपनापन ऐसे व्यक्तित्व से जब मैं पहली बार मिली मेरा मन श्रद्धा से नतमस्तक होगया ।
     श्री एस.एन पाटिल (गुरुजी) केन्द्रीय विद्यालय एफ.आर .आई. में एक संगीत शिक्षक के रुप में आए और बच्चों के लिए वरदान बनगए । ये मेरा सैभाग्य था कि एक सहायक शिक्षिका ,अभिभावक और शिष्या के रुप में मुझे काफी समय तक उनके साथ रहने का अवसर मिला   ।आज इतने वर्षो बाद जब उनके विषय में सोचती हूँ तो उनकी सादगी उनके विचार उनका अनुशासन, उनका वो समर्पण सभी एक एक कर चल चित्र की भाँति मेरे आँखों के सामने आते जाते हैं।
   गुरु जी एक लोह पुरुष थे.. साथ ही इतने सह्रद्य कि किसी के भी दुख में उनकी आँखे बरबस छलक जाती ।
निम्न पंक्तियाँ मानो उन्ही के लिए लिखी गई हो।
                     “मैंने उसको जब जब देखा लोहा देखा,
               लोहे जैसे तपते देखा
               गलते देखा ,ढलते देखा, 
          मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा”
     जिन दिनों संगीत के नाम पर विद्यालयों में बच्चे कुछ देश भक्ति गीत तथा भजन गाया करते थे ,वहाँ गुरु जी ने शुद्ध शास्त्रीय संगीत से उन्हें अवगत करवाया।  मुझे याद है स्कूल की छुट्टी के बाद बच्चे अपना अपना बैग सम्भाले संगीत कक्ष की ओर भागते नजर आते थे ,कोई हारमोनियम कोई बासुरी कोई तबला और कोई स्वर साधना में लग जाता ।पूरा विद्यालय संगीत की मधुर गूँज से गुंजायमान हो जाता ।मैं भी छुट्टी के बाद घर जाकर अपनी बेटी स्वाति को गुरु जी की कक्षा में लाकर बैठा देती ,उस वक्त वो शायद पाँच छ: वर्ष की रही होगी । धीरे धीरे समय बीतता गया और संगीत के प्रति उस का रुझान भी बढ़ता गया ।सब से बड़ी बात ये थी कि गुरु जी की बताई हुई हर बात, हर सीख को वो अन्य बच्चों की भाँति अपने जीवन में ढ़ालने लगी थी,ये मेरे लिए बहुत बड़ी उपल्बधि थी । छ:सात साल से लेकर तीस पैतीस साल तक के छॊटे बड़े सभी तरहके शिष्य थे .जो गुरुजी के पास कुछ न कुछ सीखने आया करते थे
    वास्तव में गुरु जी सिर्फ एक शिक्षक ही नहीं वे एक सशक्त गुरु थे जिन्होंने बच्चों के कर्म की क्यारी में हमेशा संस्कारो के ऐसे बीज बोए, जिससे वे अपने जीवन को तराश कर तपा कर कुंदन बना सकें ।
    छोटे –छोटे बच्चों को गुरु जी की गोदी में बैठ कर कहानियाँ किस्से सुनना बहुत अच्छा लगता था । गुरु जी के बताई हुई हर बात बच्चों के मन में पत्थर की लकीर बन जाया करती थी। इतना ही नहीं उनकी तीसरी अनुभवी आँख जो बच्चों के मन को अंदर तक जा कर पढ़ लेती थी ।इसी लिए बच्चे उनसे कोई बात नही छुपाते थे खुल कर अपनी समस्या उनके सामने रखते थे।
   प्राकृति की गोद में बसा वो छोटा सा गाँव बानगंगा जिसे कोई कैसे भूल सकता है । वही गुरु जी का एक छॊटा सा आश्रम था जो किसी गुरुकुल से कम न होगा। छुट्टी के दिन बच्चों का वहाँ जमघट सा लग जाता था । एक बड़े से पतीले में वहाँ जो खाना बनता था उसका स्वाद मैं कभी भूला नहीं सकती ।संगीत के साथ साथ गुरु जी बच्चों की स्कूली पढ़ाई पर भी ध्यान देते थे । कमजो़र विषयों को बच्चे एक दूसरे की सहायता से साधने की कोशिश करते। सुन्दर प्रकृतिक वातावरण और गुरु जी का सशक्त नेतृत्व कब और कैसे बच्चों के व्यक्तित्व को धीरे धीरे तरासता रहा निखारता रहा पता ही न चला।
  आज गुरु जी् की कई शिष्याएं संगीत की अध्यापिका के रुप में स्कूल और कालेजो में कार्यरत है । इसके अतिरिक्त चित्रकला मूर्तिकला में भी बहुत अच्छा काम कर रहीं हैं । जिन ब्च्चो ने संगीत को अपना व्यवसाय नही भी बनाया लेकिन उनके जीवन में आज भी गुरु जी की सीख का गहरा छाप दिखाई देता है
वास्तव में गुरु जी उस महान नदी के समान थे जिसने अपने आस-पास की जमीन को हरा-भरा और उर्वरा कर जीवन दिया और स्वयं महा सागर में विलीन होगए ।
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                                   महेश्वरी कनेरी